Saturday, March 14, 2009

“अधिनायकवाद की जय हो”

(संदर्भ डीजीपी को निर्वाचन आयोग द्वारा हटाया जाना )
-तपेश जैन

टी।एन.शेषन देश के ऐसे पहले निर्वाचन आयुक्त थे जिन्होंने चुनाव की पवित्रता बहाल करने की चेष्ठा की और अब विश्वरंजन भारत के ऐसे पहले पुलिस महानिदेशक हैं जिन्होंने निर्वाचन आयोग की दिन-ब-दिन बढ़ रही अतिरिक्त और अनावश्यक अधिकारवादिता को रोकने की चेष्टा की है । विश्वरंजन जैसे देश के भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठतम्, अनुभवी और विचारवान अधिकारी ने जो भी कहा, लिखा उसके परिणाम में भले ही फौरी तौर पर उन्हें चुनाव आचरण संहिता के उल्लंघन करने वाला अधिकारी मानकर लोकसभा चुनाव कार्य से मुक्त करके चुप कराने की कोशिश की गई हो, सच्चाई यही है कि यह प्रकरण वैसा नहीं है जैसा बाहर से दिखाई देता है । इससे जुड़े प्रश्नों से जुझने की कोशिश को सिर्फ़ इसलिए नहीं टाली जा सकता कि ऐसा करना चुनाव आयोग की नज़रों में अवज्ञा होगी । यह भ्रम मात्र है । देश की व्यवस्था पर प्रश्न उभरते हैं तो उसे ढूँढने की कोशिश करने का सभी को अधिकार है । मात्र अफसोस जता कर सच्ची नागरिकता और मनीषा के जीवन्त होने को प्रमाणित नहीं किया जा सकता ।

घटनाक्रम का बारीकी से विश्लेषण करने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि भारतीय निर्वाचन आयोग कितना शक्तिशाली है और उसकी स्वयं की आचरण संहिता कैसी है ? हम सभी जानते हैं कि वह चुनाव को दुष्प्रभावित करने पर लगाम कसने के सारे प्रशासनिक अधिकार प्राप्त हैं जिस पर अमल करना राज्य सरकारों के लिए लाज़िमी है । वह शासकीय अधिकारियों को दलगत, उम्मीदवार केंद्रित निष्ठा प्रदर्शित करने पर चुनाव से अलग कर सकती है, क्योंकि इससे चुनाव की पवित्रता भंग होती है । परन्तु यहाँ मामला ठीक उल्टा है । जिस पुलिस अधिकारी ने निर्वाचन आयोग को छत्तीसगढ़ में संपन्न विधानसभा में नेक सलाह दीं, उसे ही हस्तक्षेप माना गया है । यह चुभने की बात है । घटनाक्रम की सच्चाई यही है कि यह मामला राज्य निर्वाचन आयोग का था जिसमें निर्वाचन आयुक्त श्री आलोक शुक्ला के भीतर की अतिमहत्वाकांक्षा और अतिरिक्त कर्तव्यपरायणता राज्य के जिला पुलिस अधीक्षकों, खासकर नक्सलप्रभावित क्षेत्रों के, को चुनावी सुरक्षा के संबंध में वह सब कराना चाह रहे थे जो अव्यावहारिक और वास्तविक प्रयोजन के विपरीत था । इसमें उनके आईएएस के रूप में आईपीएस से सुपर होने और ऊपर से अधिनायक की जय हो प्रतिदिन प्रार्थना में दोहराने वाले देश के शक्तिसंपन्न (छोटे-मोटे, कर्मचारियों पर ही नहीं, बड़े-बड़े अधिकारियों पर भी गाज़ गिराने तक की ) चुनाव आयोग के राज्य प्रमुख होने का भाव भी हिलकोरें मार रहा था । वैसे हर आईएएस (आईपीएस भी) स्वयं को सबसे अधिक योग्य और गुणवान होने को सिद्ध करने की चेष्ठा करता रहता है । और वास्तव में वह है तो इसमें किसी बुराई भी नहीं । वैसे वास्तविक योग्य तो वही है जिसके प्रदर्शन के लिए उसे नकारात्मकता का सहारा और कुमार्गगामिता की ज़रूरत न पड़े । एक वास्तविकता यह भी है कि आईएएस और आईपीएस दोनों के बीच भी एक दूसरे से अधिक योग्य होने का छद्म भाव बना रहता है । बहरहाल घोर नक्सली समस्या से जुझ रहे बस्तर सहित कई पुलिस अधीक्षक राज्य निर्वाचन आयुक्त श्री शुक्ला के अप्रयोजनमूलक और व्यक्तिगत भावभूमि पर खड़े होकर दिये जा रहे लगभग तुगलकी आदेशों के खिलाफ कुछ बोल नही पा रहे थे । लगभग असहाय जीव की मुद्रा में । क्योंकि निर्वाचन आयोग के साथ जाने पर भारी जान माल की हानि और घनघोर नक्सलवादी संकट और नहीं जाने पर निर्वाचन आयोग का कलंक । उनके समक्ष मतदान जैसा राष्ट्रीय महत्व के उत्तरदायित्वो को अंजाम देने का दबाब था पर उससे कहीं ज्यादा माओवादियों के आक्रमण से मतदाताओं को सुरक्षित बचा लेने का राष्ट्रीय और नैतिक उत्तरदायित्व का दबाब भी । और ऐसा भी नहीं कि उनके समक्ष राज्य निर्वाचन आयोग के फरमानों के कारण आ रही अड़चनों से निपटने का सरल तरीका नहीं था । बेशक था । और वे वही श्री शुक्ला को बार-बार गुजारिश कर रहे थे । लेकिन बताया जाता है कि वे थे ही मान ही नहीं रहे थे । यही बात उन्होंने अपने विभाग के वरिष्ठतम् अधिकारी श्री विश्वरंजन को बताया । तब उन्होंने राज्य निर्वाचन आयोग तक नक्सल प्रभावित जिलो की अड़चनें और उससे बेहत्तर ढंग से निपटने के प्रकाशमान तरीके और सुरक्षात्मक पहलों की बात पहुँचायी । भीतरी सूत्र बताते हैं - इसे श्री शुक्ला ने हस्तक्षेप जैसा माना । संकट तो देखिये कि उन्हें यह विश्वरंजन जैसे वरिष्ठ और अनुभवी पुलिस अधिकारी का सुझाव प्रतीत नहीं हुआ जो देश की आंतरिक सुरक्षा का जिम्मेदार और सफल अधिकारी रहा हो । शायद यहाँ प्रशासनिक मन का अहंकार अधिक महत्वपूर्ण था । भीतरी प्रशासनिक सूत्र तो यहाँ तक बताते हैं कि एक बार तो ऐसा भी अवसर आया था जब निर्वाचन आयोग के किसी छायावादी संदर्भ का वास्ता देकर श्री शुक्ला मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक तक को कलेक्टर और पुलिस अधीक्षकों की बैठक नहीं लेने का संकेत भी दे डाले थे । कुल मिलाकर देखें तो बात कुछ भी नहीं थी । किन्तु कहीं ना कहीं राज्य निर्वाचन आयुक्त नहीं बल्कि श्री आलोक शुक्ला के मन में बड़े अधिकारियों की राय-मशविरों को अतिरिक्त आत्महीनता उपज रही थी । और उधऱ प्रदेश के बड़े अधिकारियों, कलेक्टरों सहित पुलिस अधीक्षक अपने ही भीतर के एक अधिकारी के एकाएक अप्रत्याशित व्यवहार से क्षुब्ध और परेशान थे । यह उनकी निजी रुचि, योग्यता का भी मामला हो सकता है और उनके मन में किसी निहितार्थ को फलीभूत करने की कोशिश भी । यदि ऐसा था तो उनकी आशाओं में निकट भविष्य में लोकसभा चुनाव का मौका भी सम्मिलित था । कारण जो भी हो इसी बीच वे राज्य से भारतीय निर्वाचन आयोग में पहुँच गये और इसी बीच भारतीय निर्वाचन आयोग से आदेश जारी हो गया कि अब विश्वरंजन के रहते राज्य मे लोकसभा का चुनाव निर्वाध रुप से नहीं हो सकता अतः राज्य की सरकार किसी और को उनका प्रभार दे ।

बहरहाल इस प्रकरण ने केंद्र और राज्य सरकारों के बीच मतभिन्नता के साथ ही निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है । वैसे भी आयोग में इससे पूर्व एक अन्य जो वरिष्ठ आयुक्तों के बीच सिर-फुटौवल ने इसकी मर्यादा को भंग किया ही है । चिन्तन का विषय है कि आयोग किस तरीके से बेहत्तर प्रणाली विकसित करे कि चुनाव निष्पक्ष और बिना किसी राजनीतिक मंशा से हो सके ।

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