Saturday, November 25, 2006

केवड़े का वन यानी कबीरधाम का जुनवानी लिमो


शिल्प और सौंदर्य के साझेपन के लिए प्रसिद्ध भोरमदेव मंदिर के अलावा कबीरधाम जिले में केवड़े की सुवासित सुगंध से युक्त दो धार्मिक स्थल और हैं। छत्तीसगढ़ के बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि जिला मुख्यालय कबीरधाम से मात्र छह किलोमीटर दूर “जुनवानी लिमो” में नर्मदा कुंड़ केवड़े के वृक्षों से आच्छदित है । कुंड के चारों ओर केवड़े के वृक्ष से जहां यह स्थल रमणीक हो जाता है वहीं भीनी-भीनी खूशबू अलग ही आनंद का अहसास कराती है। कबीरधाम स्थानीय पुराना नाम कवर्धा के पास स्थित इस ग्राम को शहर से जोड़ने के लिए नवीन बाजार से एक सड़क बनाई जा रही है जिससे यह पर्यटन स्थल सीधा शहर से जुड जायेगा और इसकी दूरी होगी मात्र तीन किलोमीटर ।

इस स्थान को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के लिए मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने भी खासी रूचि ली है। यह स्थान उनके पैतृक गाँव ठाठापुर और कवर्धा के बीच में स्थित है। बताते हैं कि तब डॉ. रमन स्कूटर से अपने गाँव ठाठापुर जाया करते थे तब वे यहाँ शिवमंदिर में पूजा-अर्चना कर नर्मदा कुंड को विकसित किए जाने की बात कहा करते थे। अब अवसर मिलने पर जनवानी लिमा में “हमारा छत्तीसगढ़” योजना के तहत पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग आधारभूत विकास कार्य कर रहा है ताकि वह स्थानीय व बाहरी लोगों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र बन सके।

कबीरधाम जिले में जुनवानी लिमो के अलावा झिरना ग्राम में भी केवड़े से सुगंधित वृक्षों की बड़ी तादाद है। कवर्धा-रायपुर मार्ग पर कवर्धा से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित झिरना में पवित्र नर्मदा कुंड के चारों ओर केवड़े के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष हैं। यहाँ पर पर्यटन विभाग ने सौंदर्यीकरण का कार्य बीते वर्ष पूर्ण करवाया है। लेकिन ठेकेदार की करतूत से झिरना नर्मदा कुंड का पानी सूख गया है।

कबीरधाम जिले में भोरमदेव जैसा विश्र्वप्रसिद्ध स्थल है वहीं कई ऐसे स्थल है यहाँ उत्खनन किए जाने पर वैभव का पता चल सकता है। ऐसा ही एक स्थान कंकालीन बैजलपुर प्रकाश में आया है। कवर्धा से करीब 37 किलोमीटर दूर कंकालीन बैजलपुर में प्राचीन प्रस्तर प्रतिमाएं पूर्व में ही प्रस्थापित थी। हाल ही में इसकी बावड़ी से उमा-महेश्वर की प्राचीन कलात्मक प्रतिमा प्राप्त हुई है, वहीं यहाँ स्थित टीले से मंदिर के अवशेष उत्खनित हुए हैं।

कंकालीन-बैजलपुर से एक किलोमीटर दूर बफेला-देवसरा में आठवी शताब्दी की जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान की काले ग्रेनाइट की कलात्मक प्रतिमा भी उत्खनन में प्राप्त हुई हैं जो पंडरिया के जैन मंदिर में प्रस्थापित है। इस प्रतिमा को स्थानीय बैगा आदिवासी मंत्रित मानते हैं और इसकी पूजा भी करते हैं।

इसी कबीरधाम जिले में शहर से 32 किलोमीटर दूर कुंवर अछरिया के संदर्भ में भी बहुत सी किनदंतियां हैं। कवर्धा से 25 किलोमीटर दूर पंडरिया मार्ग पर जलेश्वर महादेव खरहट्टा ग्राम में स्थित है। फोक नदी पर चट्टानों के बीच प्राकृतिक शिवलिंग से यह स्थान जिले का महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है और जिला मुख्यालय से 28 किलोमीटर दूर भोरमदेव में छत्तीसगढ़ मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। 11 वी सदी में पाषणों का यह शिल्प सौंदर्य और तंत्र-मंत्र का जंतर-मंतर है। कुल मिलाकर कबीरधाम जिले की विरासत अतीत के साथ ही वर्तमान को भी सुगंधित कर रही है।

छत्तीसगढ़ का कश्मीर-चैतुरगढ़

समुद्रतल से 3060 फीट ऊंची 2500 वर्ग किलोमीटर की पर्वत श्रृंखला चैतुरगढ़ मैकल पर्वत श्रेणी में सबसे ऊंची पायदान पर है। अलौकिक गुप्त गुफा, झरना, नदी, जलाशय, दिव्य जड़ी-बूटी और औषधीय वृक्ष कंदलओं से परिपूर्ण इस क्षेत्र को छत्तीसगढ़ का कश्मीर कहा जाता है। क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में भी यहां का तापमान 30 डिग्री सेन्टीग्रेट से ज्यादा नहीं रहता है।

अनुपम अलौकिक, प्राकृतिक छटा का वह क्षेत्र दुर्गम भी है। बिलासपुर कोरबा रोड के 50 किलोमीटर दूर ऐतिहासिक जगह पाली है जहां से करीब 125 किलोमीटर दूर लाफा है। लाफा से 30 किलोमीटर ऊंचाई पर है चैतुरगढ़।

चैतुरगढ़ में आदिशक्ति मां महिषासुर मर्दिनी का मंदिर, शंकर खोल गुफा दर्शनीय एवं रमणीय स्थल है। इस पर्वत श्रृंखला में चामादहरा, तिनधारी और श्रृंगी झरना अद्वितीय सुंदर है। इस पर्वत श्रृंखला में जटाशंकरी नदी का उद्गम स्थल भी है। इसी नदी के आगे तट पर तुम्माण खोल प्राचीन नाम माणिपुर स्थिर है जो कलचुरी राजाओं की प्रथम राजधानी थी।

पौराणिक कथा के अनुसार मातेश्वरी ने चामर चक्षुर, वाण्कल विड़ालक्ष एवं महाप्रतापी महिषासुर का संहार कर कुछ पल इस पर्वत शिखर पर विश्राम पर देवों को मनवांछित वर प्रदान कर माणिक द्वीप में अंतर्ध्यान हो गई थी।

दूर्गम पहाड़ी पर स्थित होने की वजह से कई वर्षों तक यह क्षेत्र उपेक्षित रहा। सातवीं शताब्दी में वाणवंशीय राजा मल्लदेव ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। इसके बाद जाज्वल्बदेव ने भी 1100 ई. काल में यहां स्थित मंदिर और किले का जीर्णोद्धार करवाया था। चैतुरगढ़ किले के चार द्वार बताये जाते हैं जिसमें सिंहद्वार के पास महामाया महिषासुर मर्दिनी का मंदिर है तो मेनका द्वार के पास है शंकर खोल गुफा। मंदिर से तीन किलोमीटर दूर शंकर खोल गुफा का प्रवेश द्वार बेहद छोटा है और एक समय में एक ही व्यक्ति लेटकर जा सकता है। गुफा के अंदर शिवलिंग की स्थापना है। कहते हैं कि पर्वत के दक्षिण दिशा में किले का गुप्त द्वार है जो अगम्य है। किंवदंती के अनुसार आदि शक्ति मां महिषासुर मर्दिनी इसे गुप्त द्वार से ही गुप्त पुरी माणिक द्वीप में अंतर्ध्यान हुई वहीं धनकुबेर का ख़जाना इसी द्वार से लाया जाता रहा है।

अपने अलौकिक प्राकृतिक छटा के साथ ही चैतुरगढ़ ऐतिहासिक, धार्मिक, पौराणिक, स्थलों के रूप में प्रसिद्ध है। दुर्गम पहाड़ी पर पर्यटन का अपना अलग ही आनंद है।

चैतुरगढ़ की तलहटी पर लाफा में प्राचीन महामाया मंदिर और बूढ़ारक्सादेव के दर्शन किए जा सकते हैं। पाली में नौकोनिया तालाब के तट पर प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर की स्थापत्य कला आबू के जैन मंदिरों की तरह अद्भूत है। जालीदार गुम्बज एवं स्तम्भों में उत्कीर्ण मूर्तियां कलात्मक एवं सुंदर है। पाली में पर्यटकों के विश्राम हेतु पर्यटन मंडल ने विश्राम गृह का निर्माण किया है।

डोंगरगढ़:साम्प्रदायिक सद्भावना की मिसाल

छत्तीसगढ़ का प्रमुख पर्यटन स्थल

डोंगरगढ़, राजनांदगांव जिले की इस तहसील को कौमी एकता की मिसाल और तपोभूमि कहा जाए तो गलत नहीं होगा। मां बम्लेश्वरी मंदीर के लिए विख्यात ड़ोगरगढ़ में हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह है। और तो और सभी पूजा-स्थलों की मान्यताएं व किवदंतियां हैं। मुस्लिम समाज यहां टेकरी वाले बाबा और कश्मीर वाले बाबा की दरगाह में सजदा करते हैं, तो सिख ऐतिहासिक गुरुद्वारे में कीर्तन। ईसाइयों का चर्च यहां पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। कहा जाता है, कि ब्रिटिश शासनकाल में बना ये चर्च छत्तीसगढ़ का पहला चर्च है।

आदिवासियों के आराध्य बूढ़ादेव के मंदिर की अपनी अलग दंत कथा है तो दंतेश्वरी मैय्या भी यहां विराजमान है। मूंछ वाले राजसी वैभव के हनुमान जी की छह फीट ऊंची मूर्ति के अलावा खुदाई में निकली जैन तीर्थंकर चंद्रप्रभु की प्रतिमा भव्य एवं विशाल है। बौद्ध धर्मावलंबियों ने यहां प्रज्ञागिरी में भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित कर डोंगरगढ़ को धार्मिक एकता के सूत्र में मजबूती से बांधने का काम किया है। सभी समाजों के पूजा-स्थलों की मान्यताओं के साथ डोंगरगढ़ विख्यात है मां बम्लेश्वरी मंदिर के लिए, पर्वतवासिनी मां बम्लेश्वरी देवी के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं को करीब एक हजार एक सौ एक सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है। चारों तऱफ पहाड़ों से घिरे डोंगरगढ़ का इतिहास अद्भुत है। राजा विक्रमादित्य से लेकर खैरागढ़ रियासत तक के कालपृष्ठों में मां बम्लेश्वरी की महिमा गाथा मिलती है।

माँ बम्लेश्वरी सबकी इच्छाएं पूरी करती है। हर समस्या का निदान मां के चरणों में है। सभी धर्म और आध्यात्मिक गुरुओं ने ये स्वीकार किया है कि “आराधना और प्रार्थना अद्भत तरीके से फलदायी होती है। या तो यह मानसिक तौर पर प्रार्थना करने वाले को संबल प्रदान करती है या फिर चमत्कार करती है।”

इसी चमत्कार के कारण डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी मंदिर की स्थापना हुई। दंतकथा है कि आज के करीब ढाई हजार साल पहले इस नगर का नाम कामावतीपुरी था। यहां राजा बीरसेन राज करते थे। इनकी कोई संतान नहीं थी । राज को यह जानकारी मिली कि नर्मदा नदी के तट पर एक तीर्थ है। महिष्मती, जहां भगवान शिव की आराधना करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। इस बात का पता चलते ही राजा-रानी ने शुभ मुहुर्त में नर्मदा नदी के तट पर भगवान शंकर और पार्वती की अलग-अलग आराधना की । इस प्रार्थना के एक वर्ष बाद उन्हें सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। इस चमत्कार से अभिभूत होकर राजा बीरसेन ने पहाड़ी की चोटी पर माँ पार्वती के मंदिर की स्थापना की । भगवान शिव अर्थात् महेश्वर की पत्नी होने के कारण पार्वती जी का नाम महेश्वरी भी है। कालान्तर में महेश्वरी देवी ही बम्लेश्वरी कहलाने लगी। तब से ऐसी मान्यता है कि माँ बम्लेश्वरी की जो सच्चे मन से पूजा करता है, उसके सब दुख-दर्द दूर हो जाते हैं।

मुंबई-हावड़ा रेल लाइन के बीच स्थित डोंगरगढ़ रेलवे स्टेशन छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से मात्र एक सौ चार किलोमीटर दूर है। सड़क मार्ग से यहां पहुंचने के लिए रास्ता प्रसिद्ध जी. ई. रोड के तुमड़ीबोड़ से मुड़ता है । राजनांदगांव जिले की यह सबसे बड़ी तहसील है। यहां की आबादी करीब 50 हजार है। पहले डोंगरगढ़ रियासत में शामिल था और खैरागढ़ नरेश कमल नारायण सिंह ने इसकी ख्याति चारों तरफ फैलाई। पहाड़ी की तलहटी पर छोटी बम्लई माता मंदिर के नवनिर्माण के साथ ही उन्होंने माँ की स्तुति में जसगीतों की रचना कर बम्लेश्वरी मैया की ख्याति न सिर्फ छत्तीसगढ़ वरन सम्पूर्ण देश के कोने-कोने में पहुँचाई । सन् 1964 में मंदिर के संचालन के लिए राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक समिति बनाई जो श्री बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति के नाम से जानी जाती हैं। इस समिति ने बम्लेश्वरी मंदिर का विकास तेज गति से किया । इस प्रकार देवी भक्तों की सुवीधा में लगातार इजाफा होता गया । मंदिर ट्रस्ट समिति ने नयी सीढ़ियों के निर्माण के साथ ही यहां पेयजल-आवास एवं सफाई की समुचित व्यवस्था के अलावा रियायती दर पर केंटीन प्रारंभ की, ताकि भक्तगणों को सुविधाएं मिल सकें।

इसी तरह डोंगरगढ़ नगर पालिका परिषद ने मेला स्थल के विकास के साथ ही, रोप-वे उड़न खटोला का निर्माण कर लाचार एवं बुजुर्ग दर्शनार्थियों की भावनाओं को देवी माँ तक पहुँचाने में सहायता प्रदान की। क्षीरपानी जलाशय के सौंदर्यीकरण में भी चार चांद लग गया है। करीब एक हजार सीढ़ियों की चढ़ाई के दौरान पहाड़ों और जंगलों की नैसर्गिक सुषमा यात्रियों के मन को शांति प्रदान करने के साथ ही अलौकिक सुख का अनुभव कराती है। पहाड़ी की तलहटी पर स्थित तपस्वी तालाब के संबंध में भी कई मान्यताएं हैं। कहा जाता है कि इसके आसपार की गुफाओं में तप करने ऋषि-मुनि आते थे इसलिए इसका नाम तपस्वी तावाब हो गया। इसके साथ हीमाँ रणचण्डी देवी का मंदिर है जिसे टोनी बम्लाई भी कहा जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस मदिर में जादू-चोने की जांच की जाती है। मंदिर मेंभक्त दीपक या अगरबत्ती जलाने के लिए अगर माचिस जलाता है और उसकी माचिस नहीं जलती तो यह माना जाता हैकि उस पर जादू-टोना किया गया है। माचिस अगर जल जाती है तो तंत्र-मंत्र की बात निर्मूल साबित होती है। डोंगरगढ़ की पर्वतवासिनी, माँ बम्लेश्वरी के मंदिर की प्राचीनता संदेह की परिधि से सर्वथा बाहर है। माँ की अतिशय मूर्ति बिगत ढाई हजार से अधिक वर्षों से करोड़ों श्रद्धालुओं की श्रद्धा एवं उपासना का केन्द्र बनी हुई है। मंदिर मार्ग में रणचण्डी मंदिर के अलावा नागदेवता का मंदिर भी है । भीम पैर के संदर्भ में भी कई दंत कथाएं हैं। कहा जाता है कि पाण्डव और भगवान राम ने भी इस नगरी में विचरण किया था।

पहाड़ी से घिरे इस नगर में हर धर्म के लोग अलग-अलग समय में जुटते हैं। चैत्र और क्वांर नवरात्रि में करीब दस से बारह लाख लोग यहां आते हैं तो 6 फरवरी को प्रज्ञागिरी में देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु, गुड फ्राइडे को मध्यभारत का मसीही समाज यहां पूजा करने आता है, तो टेकरी वाले बाबा के उर्स पार्क पर पहुँचने है मुस्लिम भाई।

स्थानीय निवासियों के मुताबिक हर साल करीब 40 लाख से भी ज्यादा लोग बाहर से यहां विभिन्न पूजा स्थलों के दर्शन के लिए आते हैं। छत्तीसगढ़ में इतनी बड़ी संख्या में धार्मिक पर्यटक अन्य किसी स्थान में नहीं जुटते । डोंगरगढ़ के युवा विधायक विनोद खांडेकर इसे पर्यटन स्थल का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं । वे चाहते हैं कि इस क्षेत्र में साइंस और उर्जा पार्क की स्थापना भी हो । पर्यटन स्थल का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इस क्षेत्र में साइंस और उर्जा पार्क की स्थपना भी हो। पर्यटन मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल का ध्यान भी इस ओर आकर्षित कराया है। श्री अग्रवाल भी मानते हैं कि डोंगरगढ़ को बेहतर पर्यटन स्थल बनाया जा सकता है। श्री बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति के अध्यक्ष नटवर भाई पटेल और प्रबंधक कृष्णा कुमार तिवारी भी डोंगरगढ़ की इन विशेषताओं के आदार पर इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की मांग राज्य शासन से कर चुके हैं।

मंदिर समिति ने अभी एक करोड़ रुपए की लागत से अस्पताल निर्माण का काम प्रारंभ किया है जो इस दिशा में सार्थक साबित होगा। पर्यटन मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल ने डोंगरगढ़ के विकास में विशेष रूचि ली है। यहां सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला का निर्माण द्रुतगति से जारी है। वगीं सड़क-पानी के लिए कई विकास कार्य स्वीकृत हुए हैं। स्थानीय विधायक विनोद खांडेकर एवं मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने डोंगरगढ़ को संवारने में पूरा सहयोग प्रदान किया है। आने वाले समय में यहां पर्यटकों की संख्या में दिनोदिन वृद्धि होगी - इस कामना के साथ।

अद्भूत और आश्चर्यजनक यात्रा

प्रकृति की गोद में बसा छत्तीसगढ़ प्राचीन सम्राटों एवं राजाओं का केन्द्र स्थल होने के कारण ऐतिहासिक-धार्मिक-स्थलों से परिपूर्ण है। महानदी, शिवनाथ, अरपा, खारून, पैरी, मांड, ईब, इंद्रवती,शबरी,गोदावरी, लीलागर, सोन और नर्मदा के पावन तटों पर कई राजवंशों एवं सम्प्रदायों का उदय और अस्त हुआ। इसके फलस्वरुप उनके अवशेष किले, राज-प्रसादों, मंदिरों, चैत्यों आश्रमों के गौरवमय अतीत की समृतियां शेष है। प्रकृति के अद्भूत नज़ारे और प्राचीन इतिहास पुरात्व की अमर कहानी अमिट अक्षरों में अंकित है। प्रकृति और मानव दोनों के सृजन से छत्तीसगढ़ अद्भूत- आश्चर्यजनक तथ्यों को समेटे हुए हैं । इस तथ्यों के आधार पर छत्तीसगढ़ को पर्यटन का गढ़ कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

छत्तीसगढ़ प्रदेश के शिल्पियों का स्थापत्य-ज्ञान शिल्प नैपुण्य, सौंदर्यबोध और सृजन प्रतिभा विस्मित करती है। कला और संस्कृति का अटूट संबंध है। दोनों के गठजोड़ से स्वरूप सुषमा निखरती है। छत्तीसगढ़ के खंडहर विगत गौरव की कथा के साक्ष्य हैं। प्रदेश के बस्तर ,बिलासपुर, कांकेर, सरगुजा आदि जिलों के उत्खनन और खोज से प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेष मिले हैं । रायगढ़ के पास कबरा पहाड़ की गुफाओं और सरगुजा के निकट रामगढ़ की गुफाओं से मिले सैलचित्र आदिम एवं सुविकसित संस्कृति की धरोहर है। प्राचीन दण्डकारण्य का अधिकांश भाग बस्तर है यहां वनवास काल में भगवान श्रीराम आए थे। महर्षि अगस्त्य का आश्रम यहीं है। ऋषि-मुनियों की साधना भूमि और विविध प्रतापी नरेशों की कर्मभूमि ने महत्वपूर्ण स्मारकों की सृष्टि हुई । महानदी के तट पर बसा सिरपुर नगरी कभी इस प्रदेश दक्षिण कोसल की राजधानी थी। यहां सातवीं शताब्दी का ईंटों से निर्मित प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर अपने शिल्प वैभव के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। सिरपुर का पुरातन नाम श्रीपुर था जिसका अर्थ है समृद्धि की नगरी । सातवीं सदी में चीनी यात्री व्हेनसांग यहां आया था। कहते हैं कि उस समय करीब दस हजार बौद्ध भिक्षु यहां शिक्षा ग्रहण करते थे। यहां बौद्ध विहार, आनंद प्रभु कुटीर, स्वस्तिक विहार दर्शनीय स्थल है । यहां भगवान बुद्ध की अद्भुत प्रतिमाएं प्रस्थापित है। सिरपुर में गंधेश्वर मंदिर के साथ ही अब कई समाजों ने अपने धर्मस्थल स्थापित किए हैं।

छत्तीसगढ़ का प्रयाग राजिम जीवनदायिनी महानदी-पैरी और सांदूर नदियों के त्रिवेणी संगम पर बसा है। प्रसिद्ध राजीव लोचन मंदिर के साथ ही कुलेश्वर महादेव मंदिर प्रसिद्ध है। राजिम से दस किलोमिटर दूर चम्पाचरण वल्लभ सम्प्रदाय के पर्व तक प्रभु वल्लभाचार्य की जन्म स्थली है । यहां चम्पकेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग भी स्थापित है। रायपुर से 35किलोमीटर दूर आरंग में प्रसिद्ध जैन मंदिर भांड-देवल में तीर्थंकर शांतिनाथ, श्रेयांसनाथ और अनंतनाथ की विशालकाय प्रतिमा अद्भूत है। राजिम की ही तरह जांजगीर-चांपा जिले का शिवरीनारायण महानदी शिवनाथ और जोक नदी के संगम पर बसा है। माना जाता है कि भगवान राम ने यहां शबरी के झूठे बेर खाये थे। यहां का जगन्नाथ मंदिर प्रसिद्ध है। शिवरीनारायण से तीन किलोमीटर पूर्व ग्राम खरौद में लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर इतिहास की धरोहर है। कहते हैं भगवान राम ने इस स्थान में खर और दूषण नाम के असूरों का वध किया था।

प्रदेश का बिलासपुर जिला संस्कारधानी के तौर पर प्रसिद्ध है। जिला मुख्यालय से बीस किलोमीटर दूर स्थित रतनपुर को छत्तीसगढ़ की प्रथम राजधानी का गौरव प्राप्त है। रतनपुर में प्रसिद्ध महामाया मंदिर, कण्ठीदेवल, लखनीदेवी मंदिर के साथ ही प्राचीन किला रामदेकरी व गिरजाबंद दर्शनी स्थल है। रतनपुर से दस किलोमीटर दूर खूंटाघाट जलाशय और बत्तीस किलोमीटर दूर ग्राम लुथरा में सैय्यद इंसान अली की दरगाह सभी धर्मावलम्बियों की आस्था का केन्द्र है। इसीत रह मल्हार के बुढ़ीखार में जैन तीर्थंकर आदिनाथ स्वामी परगनिया देवता के रूप में गांव वालों द्वारा पूजित है। आदिनाथ भगवान की तेरह फीट ऊंची विशाल प्रतिमा के साथ ही गाँव के रास्ते पर भगवान बुद्ध अड़ियल देवता के नाम से विराजमान है। मल्हार में पातालेश्वर मंदिर देऊर मंदिर और डिण्डेश्वरी देवी का मंदिर दर्शनीय स्थल है।

धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला बस्तर आदिवासी संस्कृति और हस्तशिल्प के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है यहां पहाड़ी गुफाओं और जल प्रपातों की लंबी श्रृंखला है। अंधी मछलियों के लिए प्रसिद्ध कुटुमसर गुफा तिलस्म का संसार है। अरण्यक गुफा, कैलाश गुफा, मकर गुफा, मरप गुफा और कनक गुफा प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। एशिया का नियाग्रा नाम से विख्यात चित्रकोट जलप्रपात इन्द्रावती नदी के घाटी में गिरने से बना है । इसी तरह कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में स्थित तीरथगढ़ जलप्रपात बेहद सुंदर है। दन्तेश्वरी में देव्तेश्वरी माई का मंदिर और बारसुर में भगवान गणेश की विशाव मूर्ति अद्भुत है।

छत्तीसगढ़ के दूसरे छोर उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र सरगुजा, कोरिया, रायगढ़ और जशपुर जिले भी जंगल, पहाड़, नदी और जलप्रपातों से सुसज्जित है। रंग शाला के रूप में विख्यात रामगढ़ की गुफायें है। यहां माना जाता है कि कालीदास ने मेघदूत की रचना की थी । रामगढ़ पहाड़ी पर अवस्थित गुफाओं में सम्राट अशोक के काल में लिखित रूप दक्ष और देवदासी सुतनुका प्रेम कथा प्रस्तर खंड में अमर है। विश्व की प्राचीनतम रंगशाला सीता बोंगरा के नाम से प्रसिद्ध है। वहीं कैलाश गुफा, उदयगिरी, कबरापहाड़, सिंघनपुर, ओंगना, बलसदा जैसे पुरातात्विक स्थल है। इस क्षेत्र में रानीदाह और राम झरना जैसे मनोरम जलप्रपात है तो मैनपाट को छत्तीसगढ़ का शिमला भी कहा जाता है जहां बड़ी संख्या में तिब्बती रहते हैं।

छत्तीसगढ़ शैव-वैष्णव-बौद्ध और जैन धर्मों का संगम स्थल है। यहां सदियों पुरानी प्रतिमायें छत्तीसगढ़ के गौरव की साक्षी है। इसी तरह बिलासपुर जिले के मनियारी नदी के तट पर बसे तालाग्राम में देवरानी जेठानी का मंदिर और रूद्रशिव की प्रतिमा जिसके शरीर के अंगों पर जानवरों की आकृतियों विभूषित हैं कई रहस्यों को समेटे हुए है। छत्तीसगढ़ के खजुराहों भोरमदेव कामंदिर अद्भूत मादकता और माधुर्य से देखने वालों का मन मोह लेता है। दुर्ग जिले के प्राचीन शिव मंदिर देव बलौदा और नागपुरा के सात ही राजनांदगांव के गंडई शिवमंदिर का शिल्प और स्थापत्य कला अनूठी है। नगपुरा में जैन तीर्थकंर पार्श्वनाथ की पूजा नाग देवता के रूप में की जाती है। वहीं डोंगरगढ़ पहाड़ी पर मां बम्लेश्वरी मंदिर की महिमा ही निराली है। धमधा में आदिवासियों के आराध्य बुढ़ादेव का मंदिर है तो झलमला में गंगा मैय्या का । नैसर्गिक और प्राकृतिक कौमार्य छत्तीसगढ़ का आकर्षक पहलू है। पाषाण संस्कृति के साथ ही मानव उत्थान के पद चिन्ह यहां मौजूद है ।
भोरमदेव, मल्हार, रतनपुर,सिरपुर,पाली,जांजगीर,शइवरीनारायण, राजिम-
चंपारण,नगपुरा,आरंग,बारसुर,रामगढ़ की ऐतिहासिक-पुरातात्विक वैभव से छत्तीसगढ़ को पर्यटन का गढ़ कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा।

अद्भूत, अतीत और आस्था का संगम(देश का पांचवा कुंभ-राजिम)

देश का पांचवा कुंभ-राजिम ! इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है। विश्व में आश्चर्य, अद्भूत और आस्था का संगम छत्तीसगढ़ राज्य में हर वर्ष लगने वाले राजिम कुंभ में साधु संतों के समागम के साथ हिन्दुस्तान की पुरातन परंपराओं को पुनर्जीवित करने की पहल परिलक्षित होती है। वेलेंटाईन डे, फ्रेंडशिप डे, रोज डे जैसे पश्चिमी संस्कृति के पर्वों ने जहां पैर पसार लिए हो वहां प्रतिवर्ष कुंभ स्वरुप मेले की अवधारणा और उसे सफल करने का प्रयास छत्तीसगढ़ के पर्यटन-संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के लिए चुनौती से कम नहीं थी, लेकिन महाशिवरात्रि के पावन दिन छत्तीसगढ़ के प्रयाग राजिम के महानदी-पैरी और सोंढर नदियों के संगम स्थल पर नागा साधुओं के साथ साधु-संतों के शाहीस्नान ने 12 वर्षों में होने वाल चार पुण्य स्थलों की परंपराओं को नया आयाम दिया। माघपूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक आयोजित इस राजिम कुंभ मेंदेश भर के 1800 से अधिक धार्मिक संप्रदाय, अखाड़ों के महंत,साधु-संत-महात्मा, धर्माचार्य और महामण्डलेश्वर के साथ ही शंकराचार्य श्री निश्चलानंद जी सरस्वती, अनंत श्री विभूषित ज्योतिष एवं द्वारका-शारदा पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती महाराज के समागम आर्शीवाद से यह पुण्य धारा ने अमृति चखा।

किवदंती है कि देवताओं और दानवों के बीच हुए समुद्र मंथन के बाद जो अमृत निकला था उसकी कुछ बूंदे नासिक, उज्जैन, इलाहाबाद और हरिद्वार में छलकी थी। इन स्थानों में स्थित वृंदावनी, क्षिप्रा, त्रिवेणी संगम और पवित्र गंगा नदी के तट पर 12 साल बाद महाकुंभ का आयोजन होता है।

पुराणों मों कहा गया है कि “अश्वमेघ सहस्त्राणी वाजपेयी समानिचः लक्षौः प्रदिक्षणा भूमैः कुंभ स्त्रानैः पद फलम ।”

अर्थात आप हजारों वर्षों में यज्ञ कर लें, और हजारों बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर लें उससे कई अधिक गुणा पुण्य कुंभ काल में स्त्रान से होता है । नवगढ़ित छत्तीसगढ़ राज्य के ह्रदय स्थल राजिम की राजधानी रायपुर से दूरी करीब 45 किलोमीटर है। राजिम का अपना धार्मिक महत्व है। यहां के करीब एक दर्जन देवालय देवधरा की देन है। छत्तीसगढ़ वैसे भी अद्भूत प्रदेश है।

यहां की कला संस्कृति, रीति-रिवाज आज भी अबूझ पहेली है। इस प्रदेश के एक बडे भूभाग को आज तक किसी ने नहीं जांचा-परखा है। “नो मैंस लेणड” जैसी इस जगह का नाम है “अबूझमाड”। आश्चर्यजनक पहलुओं को समेटे इस प्रदेश को भगवान रामचंद्र जी का ननिहाल माना जाता है। कहते हैं कभी इस प्रदेश का नाम दक्षिण कोसल था। कोसल नरेश की सुपुत्री कौशल्या का विवाह अयोध्या नरेश दशरथ से हुआ था । यहाँ भगवान राम ने 14 साल के वनवास का ज्यादातर समय व्यतीत किया। भगवान रामचंद्र माता सीता एवं लक्ष्मणजी ने यहां महानदी पैरी-सोढूंर नदियों के संगम स्थल कमलक्षेत्र वर्तमान नाम राजिम के तट पर बने बहादेव कुलेश्वर के दर्शन किए थे। भगवान राम के चरण कमल से पवित्र हुए इस संगम की महिमा ही निराली हो गई। युगों-युगों से यहां माघ पूर्णिमा से लेकर शिवरात्रि तक महोत्सव आयोजित होते रहे । महादेव कुलेश्वर के साथ ही यहां पंचकोसी संदिर की अगहन और माघ मास में पंचकोसी पिरक्रमा का विशेष महत्व होता है।

यहां भगवान श्री राजीव लोचन मंदिर में देवविग्रह की पूजा के पश्चात पैरी नदी-सोंढूर –महानदी के संगम में स्त्रन के बाद महादेव कुलेश्वर से प्रारंभ होती है पंचकोसी परिक्रमा, ग्राम पटेवा में पटेश्वर महादेव, महाप्रभु वल्लभाचार्य की प्रकाट्य स्थली चम्पारण में चम्पेश्वर महादेव, बृम्हनी में ब्रम्हनेश्वर, फिंगेश्वर में फणिकेश्वर और कोपरा में कर्पूरेश्वर दर्शन के बाद कुलेश्वर महादेव मंदिर तक की पंचकोसी परिक्रमा की परंपाए आदिकाल से जारी है। महादेव कुलेश्वर मेंदिर के पास ही प्रसिद्ध लोमश ऋषि का आश्रम दंतकथाओं का साक्ष्य है।

कुत्ता काटने का अनोखा इलाज-कुकुर चाब

कहते हैं जहां से रोग मिलता है वहीं मिट्टी में उसका इलाज भी होता है। बीमारी और उपचार की इस थ्योरी पर ही जड़ी-बूटियो की पहचान हुई और आयुर्वेद जैसी पद्धति प्रचलन में आई। यूनानी तौर-तरीकों में भी कुछ इसी तरह से पेशेंट को मेडीसिन दी जाती है। होम्योपैथी में तो लोहे को लोहा काटने के सिद्धान्त पर लक्षण के आधार पर दवा दी जाती है। हजारों वर्षों से आजमाए हुए नुस्खे स्वयं और अद्भूत है। इन तमाम इलाज पद्धतियों ने ऐलोपैथी को समय समय पर चुनौती दी है और कई बार अपनी सार्थकता सिद्ध की है। इन सब पर चर्चा करने का सबब यह है कि अद्भूत और आश्चर्यजनक तथ्यों को समेटे छत्तीसगढ़ प्रदेश में एक ऐसा स्थान है जहां कुत्ता काटने पर अनोखा इलाज होता है और वर्षों से यह उपचार सफल है।

अनोखे इलाज के लिए न तो कोई बैगा दवा दैता है और ना ही किसी तरह का झाड़-फूंक किया जाता है। कुत्ता काटने के शिकार रोगी को बस एक अनार के पेड़ की सात बार परिक्रमा करनी है और हर बार परिक्रमा के दौरान इस पेड़ के जड़ की चुटकी भर मिट्टी को फांकना है। इस सात चुटकी मिट्टी की तासीर ये है कि कुत्ता काटने से होने वाला रोग रोगी को नहीं होता है। पिछले 50-60 सालों से लाखों लोग इस दवा को आजमा रहे हैं और अब तक यह सफल भी है।

बात हो रही है कुत्ता काटने के अनोखे इलाज कुकुर चब्बा की तो यह कुकुर चब्बा दूर्ग जिले के धमधा विकासखंड में है । धमधा बस्ती से करीब दो किलोमिटर दूर खेतों के बीच स्थित कुकुर चब्बा तक पहूँचने के लिए आठ-दस खेतों की मेड़ को पार करना पड़ता है। टीकाराम साहू किसान के खेत पर पल्लवित अनार के पेड़ अब चबूतरा बना दिया गया है। पक्के चबूतरे के सम्मुख कुकुरदेव की एक प्रतिमा “कुकुर स्वस्थ” प्रतिस्थापित की गई है। पहले यहां इस प्रतिमा की पूजा नारियल चढाकर और अगरबत्ती जलाकर की जाती है। धमधा के इस कुकुर चब्बा में बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं। इसका पता यहां रखे एक रजिस्ट्रर से चलता है। इस रजिस्ट्रर में छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थलों के अलावा उड़ीसा, महाराष्ट्र प्रदेश से आए लोगों के भी नाम पते दर्ज है। खेत की किसान टीकाराम साहू से जब यह पूछा गया कि उसने यह रजिस्ट्रर क्यों रखा है तो बताया गया कि सड़क से यहां तक पहुँचने में रोगी और उनके परिजनों को बेहद परेशानी होती है, इस तकलीफ को दूर करने के लिए यहां सड़क बनाने की मांग एस.डी.एम. से की गई तो उन्होंने मुद्दा हवा में उड़ा दिया। इसके बाद विचार आया कि यहां आने बालों लोगों की संख्या और लोगों के नाम-पते देखने के बाद यहां दस लाख रुपये की लागत से डब्लू.बी.एम. सड़क बनाने की स्वीकृति मिल गई है।

यहां इस बात का उल्लेख करना सामयिक होगा कि धमधा छत्तीसगढ़ का एक गढ़ था जहां गोंड़ राजाओं का राज्य था। इस गढ़ का किला आज भी जीर्ण-शिर्ण अवस्था में है। इस किले में सुरंग और काल कोठरी के अवशेष मौजूद हैं। चारों तरफ तालाब से घिरे इस किले की कई कहानियाँ प्रचलित है। किले के पास ही गोंड़ राजाओं के आराध्य बूढ़ादेव का मंदिर है वहीं त्रिमूर्ति महामाया देवी मंदिर भी है। मंदिर की मजबूत चहारदीवारी स्थापत्य कला को रेखांकित करती है। धमधा में किले के दूसरी ओर चौकड़िया तालाब के तट पर प्राचीन चतुर्भुज, विष्णु और शिव मंदिर भी सैकड़ों साल पुराने है।

धमधा कभी छत्तीसगढ़ का औद्योगिक नगर भी था। यहां बड़े पैमाने पर बर्तन बनाने का कुटीर उद्योग था। ताम्रकरों की पूरी बस्ती तमेरपारा बसी थी जहां हर घर में बर्तन बनाए जाते है। बाद में बड़े-कारखानों में स्टील के बर्तन बनने शुरु हुए तो परंपरागत पीतल, कांसा और मिश्रित धातु के बर्तन प्रचलन से बाहर हो गये। यहां रहने वाले विष्णु प्रसाद ताम्रकार बताते हैं कि धमधा की मिट्टी अद्भूत है। पास में ही स्थित जाताघर्रा में बड़े पैमाने पर टमाटर की फसल होती है। अखबारों में हर साल किसी किसान के लखपति बनने की खबर छपती ही है।

स्वर्णिम इतिहास को समेटे हूए धमधा में छह आगर, छह कोरी तालाब है यानी कुल 126 सरोवर। कहते हैं कि इन तालाबों में सोने के कछुए डाले गये हैं जिसकी वजह से तालाब कभी सूखते नहीं। तालाबों के तट पर रहने वाले ताम्रकारों के बीच एक मान्यता यह भी है कि सांप उन्हें काटता नहीं है इसलिए ताम्रकार कभी सांप को नहीं मारते हैं।

बहरहाल धमधा छत्तीसगढ़ का कभी नूर था लेकिन आज प्रगति की दौड़ में पिछड़ गया है । दूर्गजिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर इस नगर में बसे ताम्रकार काम की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। हां कुकुर चब्बा के अनोखे इलाज के लिए यहां आने वाले लोगों का सिलसिला बदस्तूर जारी है।

समकालीन समाज का कोलॉज है डेहरी के मान

छत्तीगढ़ी फिल्मों की अच्छी संभावनाएं है प्रदेश में

रायपुर। छत्तीसगढ़ की बहुआयामी संस्था सृजन-सम्मान ने पहली छत्तीसगढ़ी टेलीफिल्म ‘डेहरी के मान’ की समीक्षा गोष्ठी आयोजित की जिसमें छत्तीसगढ़ी फिल्मों के भविष्य पर भी चर्चा की गई। शिक्षाप्रद फिल्म डेहरी के मान को समकालीन समाज का कोलाज बताते हुए यहां के सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण के साथ ही अच्छी फिल्मों की आवश्यकत निरूपित की गई। विद्वान साहित्यकारों ने फिल्म और साहित्य के बीच सेतु बनाने के पहल जैसे प्रयास की भी सराहना की। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि गोपान अग्रवाल थे वहीं अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार रमाशंकर तिवारी दुबे, श्री अनवर, अरविंद शर्मा, अनुपम वर्मा, डॉ. महेंन्द्र ठाकुर, बंटी चंद्राकर, तपेश जैन आदि बड़ी संख्या में साहित्यकार व फिल्म से जुड़े हुए कलाकार उपस्थित थे। समीक्षा गोष्ठी का संचालक संतोष रंजन ने किया। समीक्षा गोष्ठी की शुरूआत में समीक्षक चंद्रशेखर व्यास ने सिनेमा विधा के कई तकनीकी पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि लगातार प्रयासों से ही सीखा जा सकता है और छत्तीसगढ़ में अभी बहुत कुछ सीखने की जरुरत है। छत्तीसगढ़ी टूडे के संपादक जगदीश यादव ने फिल्म के कथा वस्तु और निर्देशकीय तत्व की सराहना करते हुए कहा कि छतत्तीसगढ़ी फिल्में अगर सोद्देश्य बनाई जाएं तो समाज में निश्चित रुप से बदलाव आयेगा। फिल्म के गीत-संगीत की समीक्षा करते हुए अरबिंद शर्मा ने बच्चों के लिए रचित गाने को छत्तीसगढ़ी फिल्म में नया प्रयोग बताया। साहित्कार राम पटवा ने संवादों को प्रभावी बताते हुए कहा कि फिल्म की भाषा स्थानीय संस्कृति को बढ़ावा देने में सक्षम है। संवाद में कसावट से दर्शक बंधा रहता है।

कवि एवं ललित निबंधकार जय प्रकाश मानस ने कहा कि फिल्म में दहेज, टोनही प्रथा राजनीतिक जागरुकता, भारतीय संस्कृति, शिक्षा के साथ ही परिवार के बंटने की प्रक्रिया को उजागर करने वाली घटनाओं का एक कोलाज गढ़ा गया है। इस दृष्टि से निर्देशन को सफल कहा जा सकता है। उक्त अवसर पर नागेंन्द्र दुबे, श्री अनवर, डॉ. महेंद्र ठाकुर, डॉ. जवाहर ने भी रंग सज्जा, वेशभूषआ, संगीत, गीत तथा अभइनय कला पर विचार व्यक्त किए ! कार्यक्रम के अधअयक्ष रामशंकर तिवारी ने फिल्म की कमियों को उजागर करते हुए कहा कि फिल्म में छत्तीसगढ़ की वेशभूषा को ध्यान में सही रखा गया। अच्छा होता यदि यहां के रहन-सहन का चित्रण होता। श्री तिवारी ने छत्तीसगढ़ फिल्मों में साहित्यकारों की सहभागिता को रेखांकित करते हुए कहा कि अगर निर्माता-निर्देशक साहित्कारों वे साथ सहभागिता बढ़ाकर फिल्म बनाएं तो छत्तीसगढ़ी फिल्म और ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध हो सकती हैं ।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि समाज सेवी गोपाल अग्रवाल ने फिल्म के तकनीकी पक्षों की कमजोरियों को स्वीकार करते हुए भविष्य में इसके सुधार करने का आश्वासन दिया। इस अवसर पर सृजन-सम्मान द्वारा श्री अग्रवाल को पुस्तकों का एक सैट भेंट कर सम्मानित किया गया।
कार्यक्रम कें संचालक गीतकार संतोष रंजन शुक्ल ने समीक्षा गोष्ठी का समापन करते हुए कहा कि “एरर एंड़े ट्रायल” की थ्योरी से ही छत्तीसगढ़ी फिल्मों का विकास होगा और डेहरी के मान से इसकी सार्थक शुरूआत हुई है।