देश का पांचवा कुंभ-राजिम ! इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है। विश्व में आश्चर्य, अद्भूत और आस्था का संगम छत्तीसगढ़ राज्य में हर वर्ष लगने वाले राजिम कुंभ में साधु संतों के समागम के साथ हिन्दुस्तान की पुरातन परंपराओं को पुनर्जीवित करने की पहल परिलक्षित होती है। वेलेंटाईन डे, फ्रेंडशिप डे, रोज डे जैसे पश्चिमी संस्कृति के पर्वों ने जहां पैर पसार लिए हो वहां प्रतिवर्ष कुंभ स्वरुप मेले की अवधारणा और उसे सफल करने का प्रयास छत्तीसगढ़ के पर्यटन-संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के लिए चुनौती से कम नहीं थी, लेकिन महाशिवरात्रि के पावन दिन छत्तीसगढ़ के प्रयाग राजिम के महानदी-पैरी और सोंढर नदियों के संगम स्थल पर नागा साधुओं के साथ साधु-संतों के शाहीस्नान ने 12 वर्षों में होने वाल चार पुण्य स्थलों की परंपराओं को नया आयाम दिया। माघपूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक आयोजित इस राजिम कुंभ मेंदेश भर के 1800 से अधिक धार्मिक संप्रदाय, अखाड़ों के महंत,साधु-संत-महात्मा, धर्माचार्य और महामण्डलेश्वर के साथ ही शंकराचार्य श्री निश्चलानंद जी सरस्वती, अनंत श्री विभूषित ज्योतिष एवं द्वारका-शारदा पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती महाराज के समागम आर्शीवाद से यह पुण्य धारा ने अमृति चखा।
किवदंती है कि देवताओं और दानवों के बीच हुए समुद्र मंथन के बाद जो अमृत निकला था उसकी कुछ बूंदे नासिक, उज्जैन, इलाहाबाद और हरिद्वार में छलकी थी। इन स्थानों में स्थित वृंदावनी, क्षिप्रा, त्रिवेणी संगम और पवित्र गंगा नदी के तट पर 12 साल बाद महाकुंभ का आयोजन होता है।
पुराणों मों कहा गया है कि “अश्वमेघ सहस्त्राणी वाजपेयी समानिचः लक्षौः प्रदिक्षणा भूमैः कुंभ स्त्रानैः पद फलम ।”
अर्थात आप हजारों वर्षों में यज्ञ कर लें, और हजारों बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर लें उससे कई अधिक गुणा पुण्य कुंभ काल में स्त्रान से होता है । नवगढ़ित छत्तीसगढ़ राज्य के ह्रदय स्थल राजिम की राजधानी रायपुर से दूरी करीब 45 किलोमीटर है। राजिम का अपना धार्मिक महत्व है। यहां के करीब एक दर्जन देवालय देवधरा की देन है। छत्तीसगढ़ वैसे भी अद्भूत प्रदेश है।
यहां की कला संस्कृति, रीति-रिवाज आज भी अबूझ पहेली है। इस प्रदेश के एक बडे भूभाग को आज तक किसी ने नहीं जांचा-परखा है। “नो मैंस लेणड” जैसी इस जगह का नाम है “अबूझमाड”। आश्चर्यजनक पहलुओं को समेटे इस प्रदेश को भगवान रामचंद्र जी का ननिहाल माना जाता है। कहते हैं कभी इस प्रदेश का नाम दक्षिण कोसल था। कोसल नरेश की सुपुत्री कौशल्या का विवाह अयोध्या नरेश दशरथ से हुआ था । यहाँ भगवान राम ने 14 साल के वनवास का ज्यादातर समय व्यतीत किया। भगवान रामचंद्र माता सीता एवं लक्ष्मणजी ने यहां महानदी पैरी-सोढूंर नदियों के संगम स्थल कमलक्षेत्र वर्तमान नाम राजिम के तट पर बने बहादेव कुलेश्वर के दर्शन किए थे। भगवान राम के चरण कमल से पवित्र हुए इस संगम की महिमा ही निराली हो गई। युगों-युगों से यहां माघ पूर्णिमा से लेकर शिवरात्रि तक महोत्सव आयोजित होते रहे । महादेव कुलेश्वर के साथ ही यहां पंचकोसी संदिर की अगहन और माघ मास में पंचकोसी पिरक्रमा का विशेष महत्व होता है।
यहां भगवान श्री राजीव लोचन मंदिर में देवविग्रह की पूजा के पश्चात पैरी नदी-सोंढूर –महानदी के संगम में स्त्रन के बाद महादेव कुलेश्वर से प्रारंभ होती है पंचकोसी परिक्रमा, ग्राम पटेवा में पटेश्वर महादेव, महाप्रभु वल्लभाचार्य की प्रकाट्य स्थली चम्पारण में चम्पेश्वर महादेव, बृम्हनी में ब्रम्हनेश्वर, फिंगेश्वर में फणिकेश्वर और कोपरा में कर्पूरेश्वर दर्शन के बाद कुलेश्वर महादेव मंदिर तक की पंचकोसी परिक्रमा की परंपाए आदिकाल से जारी है। महादेव कुलेश्वर मेंदिर के पास ही प्रसिद्ध लोमश ऋषि का आश्रम दंतकथाओं का साक्ष्य है।
Saturday, November 25, 2006
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1 comment:
Your work on Rajim and other Historical palces of Chhattishgarh is wonderfull, I am pround to be a friend of your's. "CHHATTISHGARHIA SABLE BADIYA" - MANOJ KANDOI
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