रायपुर। भारतीय जनता पार्टी लगातार यह मिथक तोड़ रही है कि वो एक बार सत्ता में आने के बाद दुबारा नहीं आती। गुजरात में नरेंद्र मोदी के बाद मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी की वापसी से ये टोटका टूट गया। मध्यप्रदेश को छोड़ दें तो छत्तीसगढ़ में सिंहासन छत्तीसी की विजय के लिए अगर कोई हकदार है तो वे एकमात्र नेता मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ही है जिन्होंने पहले पांच साल का कार्यकाल पूरा कर भाजपा में तो रिकार्ड बनाया वहीं पार्टी के तमाम बड़े नेताओं की खिलाफत के बीच बहुमत का जादुई आंकड़ा प्रापत कर करिश्मा कर दिखाया। इस जर्बदस्त सफलता के पीछे उनके गरीबों को तीन रूपये किलो चावल देने की खाद्यन्न सहायता योजना से ज्यादा उनकी व्यक्तिगत सर सौम्य नेता की छवि के साथ ही आदिवासी अंचल बस्तर सरगुजा में विकास कार्य भी है जहां पार्टी के अभूतपूर्व सफलता मिली है। डॅा. रमन सिंह अकेले ऐसे नेता है जिन्होंने बस्तर में नक्सलवाद के खिलाफ आदिवासियों के स्वस्फूर्त आंदोलन सलवा जुडूम का साहस के साथ समर्थन किया। बाकी उनके सहयोगियों में भारी भय रहता था की कहीं उनके ज्यादा बोलने से नक्सलवादी उन्हें अपना शिकार न बना लें। ऐसे समय में मुख्यमंत्री का डटकर सामना करने से एक अलग ही छवि जनता के बीच बनी। छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के प्रभारी भाजपा के वरिष्ठï नेता रविशंकर प्रसाद का यह कहना बहुत मायने रखता है कि सन 2003 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सात प्रतिशत वोट जो इस चुनाव में कांग्रेस के साथ जुड़ गए थे उसे और एंटी इनकाम्बेंसी के वोटों से जूझकर पुन: सत्ता प्राप्त करना अभूतपूर्व है और इसे डा. रमन सिंह ने कर दिखाया है और वे सम्मान के योग्य हैं। इस विश्लेषण से जो लोग इत्तेफाक नहीं रखते हो उनके लिए बहुत से तथ्य हैं जो ये साबित कर सकते हैं कि डा. सिंह के नेतृत्व ने कांग्रेस के गढ़ छत्तीसगढ़ में पूरी तरह सेंधमारी कर दी है। इस बात से अलग सब इत्तेफाक रखते हैं कि आदिवासी अंचल बस्तर और सरगुजा जिस पार्टी का साथ दे देता है उसकी प्रदेश में सरकार बन जाती है इस बार भी बस्तर और सरगुजा ने कमल पर बटन दबाया है। बस्तर की 12 में से 11 सीट जीतर भाजपा ने नया रिकार्ड कायम किया है तो सरगुजा अंचल की कोरिया, अंबिकापुर और जशपुर जिले की 14 में से 9 सीटों पर औ्र विशेषकर कोरिया जिले की तीनों सीटों पर कब्जा कर भाजपा ने इतिहास ही रच दिया है। अब बात करें कि इन क्षेत्रों में किन कारणों से पार्टी को इतनी सफलता मिली है तो कई बातों पर गौर करना होगा। बस्तर में जहां सलवा जुडूम का समर्थन ने आदिवासी मन को मोहा तो वहीं बस्तर और सरगुजा विकास प्राधिकरण के तहत किए गए विकास कार्यों ने भी पार्टी के प्रति वफादारी का भाव जागृत किया। यहां बता दें कि आजादी के बाद से ही दोनों क्षेत्र उपेक्षित है और मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने इन दोनों अंचल में स्वयं रूचि लेकर विकास कार्यों को अमलीजामा पहनाया। बस्तर और सरगुजा विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष पद का दायित्व निभाते हुए डा. सिंह ने जो काम किए है उसका ही प्रतिफल इस चुनाव में मिला है।
याद दिलाने वाली बात यह भी है कि इन दोनों क्षेत्रों के क्षत्रप सांसद नंदकुमार साय और बलीराम कश्यप ने इस बार चुनाव में कोई सक्रिय भूमिका अदा नहीं की बल्कि नाराजगी के चलते खामोशी अख्तियार कर ली थी। बस्तर टाइगर बलिदादा ने तो लता उसेंडी की हार पहले से ही घोषित कर पार्टी का मनोबल तोडऩे में कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन वे जीती और पार्टी ने भी ऐतिहासिक विजय हासिल की। वहीं सरगुजा अंचल की राजनीति में अव्वल नेता नंदकुमार साय की चुप्पी के बाद भी डा. सिंह ने नेतृत्व कर पूरा उत्साह पार्टी में बनाए रखा। डा. रमन सिंह इस चुनाव में पूरी तरह अकेले पड़ गए थे। सांसद बलीराम कश्यप, नंदकुमार साय के अलावा रमेश बैस भी सुस्त रहे तो ताराचंद साहू, शिवप्रताप सिंह और गहिरा गुरू के पुत्र संस्कृत बोर्ड के अध्यक्ष चिंतामणि महाराज की बगावत के अलावा 17 सीटिंग विधायकों की अप्रत्यक्ष नाराजगी के बीच चुनाव का नेतृत्व करना टेढ़ी खीर ही था। फिर एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा की कहावत को चरितार्थ करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के जोरदार हमलों का सामना करने में अच्छे-अच्छे का पसीना निकल जाए सो डा. रमन सिंह को खासी मेहनत करनी पड़ी है अपनी सल्तनत बचाने के लिए। इसलिए डा. रमन की जीत करिश्मे से कम नहीं है और उनमें संघर्ष कर जीत हासिल करने का जज्बा पैदा हो गया है और इसे ही करिश्माई नेता कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
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