Saturday, February 7, 2009

लोक कला समाज का दर्पण


लोक कला एक पूरे समाज का दर्पण है। इसके रंग में समाज को पूर्णतया देखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में लोक कला वह सांस्कृतिक धरोहर है जिससे समाज की जीवनधारा प्रवाहित होती है। धार्मिक अनुष्ठïान से जुडक़र सामाजिक रीति-रिवाजों का अभिन्न अंग बनकर यह श्रंृगार प्रदान करती है। जीवन के गहरेपन के अहसास के साथ ही एक भावनात्मक लगाव उत्पन्न कर जीवन में उमंग एवं उल्लास पैदा करने का कारक बनती है। सही मायनों में लोक कला व शिल्प समाज का अभिन्न अंग है।

छत्तीसगढ़ की भूमि देश की सांस्कृतिक समृद्धि में अपना अनूठा स्थान रखती है। करीब दो लाख परिवार सीधे तौर पर इस संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने में जुटे हुए हैं। रामायण, महाभारत और अन्य पौराणिक गाथाओं की अनुपम शैली में जीवन मूल्यों के प्रेरणा ोत काव्य का गायन यहां रचा-बसा हुआ है। रामायण की रामधुनी और महाभारत की पंडवानी गायन व अभिनव शैली लाजवाब है। जिसके बलबूते पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर झाडूऱाम देवांगन, तीजन बाई व ऋतु वर्मा जैसी कलाकारों ने ख्याति अर्जित की है।

लोक कला के अपने मापदंड होते हैं, जिसमें प्रकृति एवं जीवन के बीच तादम्य स्थापित किया जाता है। छत्तीसगढ़ के बहुसंख्यक कलाकार आज के संदर्भ में ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हो के कारण बावजूद पौराणिक कथाओं की आत्मा का अहसास दिलाते हैं।

सबसे अहम बात तो यह है कि पिछड़े, दलित और आदिवासी बहुल क्षेत्र होने के बावजूद छत्तीसगढ वासियों में सहज संस्कार की परंपरा आज भी जीवित है। अपनी माटी की सुगंध को सहेजकर इन लोक कलाकारों ने कई चुनौतियों का सामना किया है। सुनकर याद करना और उसे मौखिक रूप से पुन: प्रस्तुत करने में इनका कोई सानी नहीं है। लोक रूचि के अनुरूप थोड़ा बहुत बदलाव इन कलाओं में हो सकता है लेकिन आज भी परंपरागत ढंग़ से इनकी प्रस्तुतियां मन मोह लेती है।

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